कौशाम्बी के गांव अब गांव नहीं रहे,शहरों की ऊंची बिल्डिगों ने गांव की गरिमा को किया धूमिल,गांव की शुद्ध हवा को तरस रहे लोग:सुधाकर सिंह

कौशाम्बी,

कौशाम्बी के गांव अब गांव नहीं रहे,शहरों की ऊंची बिल्डिगों ने गांव की गरिमा को किया धूमिल,गांव की शुद्ध हवा को तरस रहे लोग:सुधाकर सिंह,

भवंस मेहता विद्याश्रम भरवारी के वाइस प्रिंसिपल सुधाकर सिंह द्वारा रचित यह लाइन वास्तव में गांव से जुड़ी बातों को सजीव किया है, उन्होंने गांव और गांव में बसने वाले लोगोंके संस्कारों के बारे में इन लाइनों में ऐसा वर्ण किया है वास्तव में गांव की व्याख्या कैसी होती है,लोगो को आज के समय में समझने की आवश्यकता है।

गांव के बारे में सुधाकर सिंह के विचार………

गांव का जीवन पहले बहुत ही सुंदर, स्वस्थ सामाजिक संस्कारी हुआ करते थे परन्तु आज के समय में बिल्कुल अलग पहचान है ।पहले परिवार के मुखिया की एक अलग ही पहचान थी लेकिन आज सभी मुखिया है पहले घर की बहू का घूंघट घर वाले ही देखने को तरसते थे ,लेकिन आज की पीढ़ी जानती ही नहीं घूंघट क्या होता है घर में सास की अलग अहमियत होती थी, चौपाल पर सांझ होते ही चारपाईयों में पर अलग-अलग कतार में सब बैठ जाते थे, जिसमें दिन भर के किये कामों की चर्चा होती थी, सब के अलग-अलग कामों की सराहना होती थी, उस समय सुबह उठते ही नमक की रोटी में मां चम्मच से गोद गोद कर घी लगा हुआ दही के साथ खाने का कुछ अलग ही मजा था।

पहले बच्चे गुरुकुल की शिक्षा लेते थे संस्कारी होते थे, बच्चा दादी,दादी से कहानी सुनते थे, सनातन क्या है इसकी जानकारी मिलती थी, अब सब सिंगल फेमली में रहना चाहते है, दादा,दादी को वृध्दा आश्रम का रास्ता दिखा दिये, तब संस्कार कहा मिलेगे और अब वह सब गुम हो गया है, घर में चार लोग अगर हैं भी तो सब अलग-अलग मोबाइल पर व्यस्त हैं, किसी को किसी से बात कर ने का समय ही नहीं है आपसी प्रेम सब खत्म हो गया है। एक दूसरे का सम्मान बिल्कुल ही समाज से जा रहा है पहले शहरों में पड़ोसी , पड़ोसी को नहीं जानता था अब ये कल्चर गाँव में भी आ गया है ये कैसी बिडम्बना है कि “अब गाँव, गाँव नहीं रहा”

Ashok Kesarwani- Editor
Author: Ashok Kesarwani- Editor