कौशाम्बी,
दारानगर का ऐतिहासिक 8वीं मुहर्रम का जुलूस निकाला गया,दो सौ साल खून से लाल होती है सड़क,
इस्लामी नए साल का आग़ाज़ मुहर्रम के चांद को देखकर किया जाता है लेकिन इसमें खुशियां नहीं मनाई जाती है और तो तो नववर्ष की बधाई दी जाती है क्योंकि मुहर्रम इस्लामी महीने का नाम है और इसी महीने में ईमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को करबला (ईराक़) में धोखे से क़त्ल किया गया है।विश्व की सबसे बड़ी शहादत करबला में ईमाम हुसैन ने दी थी लेकिन ये ऐसी शहादत है कि जिसमें जो क़त्ल हुवा उसकी जीत हुई ज़ाहिरी तौर से भले ही यज़ीद और उसकी फ़ौज जीती थी मगर कर्बला की जंग सच और झूठ पर आधारित है, हक़ और नाहक़ पर, हिंसा और अहिंसा पर आधारित है।
मोहर्रम आते ही मुस्लिम समाज के लोग अपने वतन में एकत्र होकर उनकी याद में मजलिस (कथाएं) सिनाज़नी मातम, और छुरी तलवारों का मातम करते हैं जबकि यज़ीद जैसे आतंकी के समर्थक इसका विरोध करते हैं लेकिन भारत के साथ साथ पूरे विश्व में खासतौर से मुसलमानों में शिया समुदाय के लोग मुहर्रम मनाते हैं।कौशाम्बी जिले के दारानगर में दो सौ सालों से मुहर्रम जुलूस निकाला जाता रहा है, चांद दिखाई देने पर चांद रात से ही मजलिस (करबला की कथा) होने का सिलसिला इमामबाड़ों में शुरू हो जाता है।दारानगर में सुबह 8 बजे से मजलिस शुरू होकर आधीरात तक लगातार विभिन्न इमामबाड़ों में होती रहती है ज़मीदार रहे हिदायत अली के इमामबाड़ा के बाद नवाब हुसैन और मुख्तार मेंहदी के इमामबाड़ों में दस दिनों तक अशरे की कथाएँ होती हैं।लेकिन महिलाओं का इमामबाड़ा अलग होता है जिसमें महिलाएं ही मजलिस मातम करती हैं।दारानगर में 7 वी मुहर्रम से जुलूस निकाला गया है जिसमे 7 मुहर्रम की रात अली असगर का झूला व हजरत क़ासिम का ताबूत बरामद किया जाता है।दारानगर में 8 वीं मुहर्रम का जुलूस दो बड़े जुलूस में मुख्य है जो 3 किलोमीटर तक का सफ़र तय करने के साथ साथ 8 घण्टे तक का होता है और इसी 8वी जुलूस में ज़ंजीर व तलवार का मातम किया जाता है।दारानगर के सैयद वाडा मुहल्ले में नवाब हुसैन के इमामबाड़ा से मजलिस के बाद दुलदुल ज़ुल्जनाः और परचमे अब्बास निकाल कर जुलूस बरामद किया जाता है जो नगर के मुख्य चौराहे से चौक फिर बाज़ार से होकर कटरा के जंगल के रास्तों से करबला तक जाता है जिसकी दूरी 3 किलोमीटर है और इसमें आठ घंटे लगते हैं।दारानगर की सैकड़ों साल पुरानी अंजुमन असदिया का यह जुलूस है।अंजुमन के जवान और बच्चे खूनी मातम, जंजीर व तलवार का मातम करते हैं।यहां की सबसे अदभुत परंपरा यह है कि यहां चलते हुए खूनी मातम होता है।दारानगर की पूरी सड़क खून से लाल हो जाती है अंजुमन के वॉलनटिअर्स लगातार मातमी लोगों पर गुलाब जल छिड़कते रहते हैं।जुलूस में दारानगर के हिन्दू समाज का महत्वपूर्ण सहयोग होता है। जिस प्रकार से यहां का दशहरा मशहूर हैं उसी प्रकार यहां का मुहर्रम ऐतिहासिक और मशहूर है।जुलूस में अंजुमन के सदर असद सगीर कर्बला की दास्तान पर प्रकाश डालते हुए बताते हैं कि मुहर्रम क्यों मनाया जाता है और गाँव के सम्मानित हिंदू समाज के लोग भी अपनी श्रद्धा ईमाम हुसैन को पेश करते हैं ,दारानगर को हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए भी जाना जाता है।गौरतलब हो कि सदर असद सगीर ने बताया कि दारानगर के मुहर्रम में पहले जुलूस नहीं निकलते थे लेकिन यहां के हिंदुओ ने जुलूस की प्रथा शुरु की थी।